धनतेरस नहीं ‘धानतेरस’ मनाती है आदिवासी भील जनजाति

आदिवासी भील समाज धनतेरस नहीं ‘धान तेरस’ मनाता हैं। और यह त्योहार फसलों की कटाई होने की खुशी में मनाया जाता हैं। आदिवासी समाज सदियों से धान की, चाँद-सुरज की और जीवन यापन में सहायक औजारों, आत्मरक्षा के हथियारों और प्रकृति की पुजा करता हैं।

अजय भाबर, पत्रकार व लोकगायक (धार)

आज भी दिवाली पर हर खेत, कुएँ, पशुओं के बांधने के स्थान, खलिहान, घर की चोखट, घर के धारण और यहां तक कि गोया (पगडण्डी) में भी दीपक जलाये जाते हैं। आधुनिक होने के ढोंग में ज्यादातर आदिवासी लोगों ने अब लक्ष्मी पूजा और कई तरह की मुर्ति पुजा करना शुरू कर दिया हैं लेकिन आदिवासियों के इतिहास में इस तरह के किसी देवी देवता और मूर्ति पूजा का कोई जिक्र नहीं हैं, पुरखे सदा से हीं प्रकृति और अपने पूर्वजो को ही पूजते आये है। पकवान में भी पारंपरिक ताये (गेंहू के आटे से बनने वाला व्यंजन), वड़े, पकोड़े, मिर्चीबड़े जैसी चीजें बना करती थीं जिसकी जगह अब खीर-पुड़ी और गुलाब जामुन जैसी चीज लेती जा रही हैं।

आज रतलामी सेव को भले ही जी आई टैग मिल गया हो रतलामी होने का लेकिन इतिहास के अनुसार सेव बनाने की शुरुआत भी झाबुआ क्षेत्र के भील आदिवासियों ने ही की थी जिसे पहले भीलड़ी सेव कहा जाता था। और युद्ध के लिये बाहर जाने वाले योद्धाओं के लिये बड़ी उपयोगी साबित हुई क्योंकि सेव कई दिन तक खराब नहीं होती थी। इसके पूर्ण इतिहास और देशभर में पहुँचने की कहानी फिर कभी। चौदस का दिन तेरस से भी ज्यादा विशेष माना जाता है क्योंकि चौदस के दिन (कई क्षेत्र मे पड़वा के दिन) सुबह उठते ही घर की चोखट पर दिये जलाकर मुर्गे या बकरे की बली दी जाती है और हल के साथ जो लकड़ी होती है उसमें जो लोहा छोटा सा लगा होता है जिसे स्थानिय भाषा में ‘अल्ती’ कहते है, (भिन्न-भिन्न क्षेत्रों मे भिन्न-भिन्न नाम हो सकता है) को गर्म करके मवेशियों पर हल्का निशान बनाया जाता है जिसे दागना, गोदना कहते है। मान्यता है कि इससे मवेशी बिमार नहीं होते है। ऐसे निशान कई लोगों के हाथो पर भी लगे मिल जाते है, जो चौदस के दिन ही लगायें जाते है। मुर्गे बकरे की बली के बाद ही फिर घर से मवेशियों को बाहर निकाला जाता है, हालाँकि कई लोगों ने अब चौदस के दिन बली देना बंद कर दिया है। (हमारा उद्देश्य जीव हत्या को सही ठहराना नहीं है) खैर खान पान तो फिर भी ठीक है लेकिन अपनी परंपराओं को धिरे धिरे भुलना अपने ही अस्तित्व और पहचान को खोने से कम नहीं हैं।

आदिवासी समाज सारे पकवान तैयार होने के बाद घर के धारण के पास महुआ रस की धार के बाद अपने पुर्वजों के नाम चढ़ाता हैं उसके बाद ही सारे मेहमान और परिवार मिल कर खाना खाते हैं। यह चढ़ावा अपने पूर्वजों को हमें जीवन देने और प्रकृति को शरण देने के धन्यवाद स्वरूप होता हैं। अलग अलग क्षेत्रों में थोडी बहुत विभिन्नताएँ देखी जा सकती हैं लेकिन मूल उद्देश्य और तरीका एक जैसा ही होता है। हर तीज- त्यौहार, सुख-दुःख की रिती- रिवाजों में ज्वार का उपयोग ज्यादातर किया जाता है, क्योंकि हरित क्रांति से पहले ज्वार और बाजरे की ही खेती होती थी और जीवन उसी के सहारे था इसलिए लोग आज भी ज्वार को माता कहते है। जो अपनी संस्कृति को भुला रहें हैं दरअसल वो खुद का अस्तित्व मिटा रहें हैं। सभी को धान तेरस की शुभकामनाएं, प्रकृति सभी को खुशहाल और स्वस्थ रखें।

– अजय भाबर, पत्रकार व लोकगायक (धार)